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Type: Article | Author: Pranay Kant Charu

भारतीय समाज में जाति व्यवस्था

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भारतीय समाज में जाति व्यवस्था एक ऐसी सामाजिक संरचना रही है, जो सदियों से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करती रही है। यह व्यवस्था मुख्य रूप से हिंदू धर्म से जुड़ी है, लेकिन इसका प्रभाव अन्य धर्मों और समुदायों पर भी देखा जा सकता है। जाति व्यवस्था ने सामाजिक असमानता, भेदभाव और उत्पीड़न को बढ़ावा दिया है, जो आधुनिक भारत में एक गंभीर सामाजिक चुनौती बना हुआ है। इस लेख में हम जाति व्यवस्था के इतिहास, प्रभाव और भारतीय संविधान के प्रावधानों के संदर्भ में इसके विरोधाभास पर चर्चा करेंगे।

 

परिचय
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था एक ऐसी सामाजिक संरचना रही है, जो सदियों से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करती रही है। यह व्यवस्था मुख्य रूप से हिंदू धर्म से जुड़ी है, लेकिन इसका प्रभाव अन्य धर्मों और समुदायों पर भी देखा जा सकता है। जाति व्यवस्था ने सामाजिक असमानता, भेदभाव और उत्पीड़न को बढ़ावा दिया है, जो आधुनिक भारत में एक गंभीर सामाजिक चुनौती बना हुआ है। इस लेख में हम जाति व्यवस्था के इतिहास, प्रभाव और भारतीय संविधान के प्रावधानों के संदर्भ में इसके विरोधाभास पर चर्चा करेंगे।

जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था से मानी जाती है, जो समाज को चार प्रमुख वर्णों में विभाजित करती थी: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। समय के साथ यह व्यवस्था जटिल होकर हजारों उप-जातियों में बंट गई। यह व्यवस्था पेशे, सामाजिक स्थिति और धार्मिक कर्मकांडों पर आधारित थी। मनुस्मृति जैसे ग्रंथों ने इसे और सुदृढ़ किया, जिसके कारण निचली जातियों और दलितों के साथ भेदभाव बढ़ता गया। औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश प्रशासन ने जनगणना और सामाजिक नीतियों के माध्यम से इसे और अधिक औपचारिक रूप दिया।

जाति व्यवस्था का सामाजिक प्रभाव

जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज में गहरी असमानता को जन्म दिया। यह न केवल सामाजिक स्तर पर, बल्कि आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक अवसरों में भी भेदभाव का कारण बनी। दलित और निचली जातियों को शिक्षा, संपत्ति और सामाजिक सम्मान से वंचित रखा गया। छुआछूत, सामाजिक बहिष्कार और हिंसा जैसी प्रथाएँ समाज का हिस्सा बन गईं। आधुनिक भारत में, शहरीकरण और शिक्षा के प्रसार के बावजूद, जातिगत भेदभाव आज भी ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में देखा जाता है, जैसे कि अंतरजातीय विवाहों पर प्रतिबंध, रोजगार में भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार।

भारतीय संविधान और जाति व्यवस्था

भारतीय संविधान, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, समता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है। यह जाति व्यवस्था के कई पहलुओं के खिलाफ स्पष्ट रूप से खड़ा है। संविधान के कुछ प्रमुख प्रावधान जो जाति व्यवस्था के भेदभाव को चुनौती देते हैं, निम्नलिखित हैं:

1. अनुच्छेद 14: यह कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। जातिगत भेदभाव इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है।

2. अनुच्छेद 15: यह धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव को निषेध करता है। अनुच्छेद 15(2) सार्वजनिक स्थानों जैसे कुओं, मंदिरों और दुकानों में सभी के लिए समान पहुंच सुनिश्चित करता है।

3. अनुच्छेद 17: यह छुआछूत को समाप्त करता है और इसे दंडनीय अपराध घोषित करता है। यह प्रावधान जाति व्यवस्था के सबसे क्रूर पहलुओं में से एक को लक्षित करता है।

4. अनुच्छेद 46: यह अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने का निर्देश देता है।

5. आरक्षण नीति: अनुच्छेद 15(4), 16(4) और 340 के तहत अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान है, ताकि ऐतिहासिक अन्याय को सुधारा जा सके।

जाति व्यवस्था और संवैधानिक प्रावधानों का विरोधाभास

जाति व्यवस्था की कई प्रथाएँ संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ हैं। संविधान समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है, जबकि जाति व्यवस्था असमानता और भेदभाव को बनाए रखती है। उदाहरण के लिए: -

छुआछूत और सामाजिक बहिष्कार
अनुच्छेद 17 छुआछूत को अवैध घोषित करता है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी दलितों को मंदिरों, कुओं और सामुदायिक आयोजनों से बाहर रखा जाता है। -

सामाजिक असमानता
जाति आधारित विवाह और सामाजिक मेलजोल की प्रथाएँ अनुच्छेद 14 और 15 के समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं। -

आर्थिक असमानता
निचली जातियों को ऐतिहासिक रूप से भूमि और संसाधनों से वंचित रखा गया, जो अनुच्छेद 46 के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लक्ष्य के खिलाफ है। हालांकि, संविधान ने आरक्षण और सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action) के माध्यम से सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का प्रयास किया है, लेकिन इन नीतियों पर भी विवाद रहा है। कुछ लोग इसे "रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन" मानते हैं, जबकि अन्य इसे ऐतिहासिक अन्याय के सुधार के लिए आवश्यक मानते हैं।

निष्कर्ष

जाति व्यवस्था भारतीय समाज में एक गहरी जड़ें जमाए हुए सामाजिक बुराई है, जो संविधान के समता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। संविधान ने इसे समाप्त करने के लिए कई प्रावधान किए हैं, जैसे छुआछूत को अवैध घोषित करना, आरक्षण नीतियाँ और सामाजिक-आर्थिक समानता को बढ़ावा देना। फिर भी, सामाजिक जागरूकता, शिक्षा और कठोर कानूनी प्रवर्तन की कमी के कारण जातिगत भेदभाव आज भी मौजूद है। जाति व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों के साथ-साथ सामाजिक सुधार और जागरूकता अभियानों की आवश्यकता है।

 

Published: about 3 months ago

 

Keywords: Constitution, equality, equal, caste, system, culture

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